औषधी विज्ञान का जन्म कैसे हुई इस बात का प्रमाण हमें अथर्ववेद से मिलता है अथर्ववेद में ही पहली बार बीमारियों, चिकित्सा और औषोधियो का उल्लेख प्राप्त होता है अथर्ववेद में ज्वर, खांसी, खानपान, डायरिया, ड्रापसी, जख्म, कुष्ट, और दौरे जैसी बीमारियों का वर्णन मिलता है जिसमे रोगों का कारण शारीर में प्रविष्ट भूत प्रेत आदि को माना गया है और इनका निदान बी जादुई तरीको से बताया भी गया है इसके बाद ६०० ईसा पूर्व से में तर्क संगत विज्ञानं का जन्म हुआ तथा तक्षशिला और वाराणसी औषधि और ज्ञान के प्रमुख केंद्र के रूप में उभरे इसका प्रमाण उस समय के दो प्रमुख ग्रंथो चरक्सहिता और सुश्रुतसहित है इसका पता इस तथ्य से चलता है की ये ग्रन्थ अनेको भाषाओ में अनुवाद किये गये और चीन और मध्य एशिया तक पहुच गये
चरक सहित मे औषोधियो के रूप में प्रयोग की जाने वाली जड़ी बूटियों के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है चोथी शताब्दी में शल्य चिकित्सा एक अलग अध्धयन धारा के रूप में उभरकर सामने आयी और सुश्रुत को इस शास्त्र में सबसे आगे माना जाता है सुश्रुत ने शल्यचिकित्सा को उपचार की सबसे अच्छी विधि माना है उन्होंने अपने ग्रन्थ में १२१ शल्य उपकरणों का वर्णन किया है जिसमे उन्होंने हड्डियों को जोड़ने, आखों के मोतियाबिंद आदि के आप्रेशान का तरीका भी बताया है प्राचीन भारत के शल्य चिकित्सक प्लास्टिक सेर्जेरी से भी परिचित थे जिसमे नाक, कान, होठो की सर्जरी आदि सम्मिलित है
सुश्रुत ने अपने ग्रन्थ में लगभग ७६० पोधो का उल्लेख किया है जिसमे उन्होंने पोधो की जेड, छाल, फूल, और पत्ते आदि सभी का उल्लेख किया है और उस समय भोजन पर आधिक बल दिया जाता था जैसे गुर्दे के रोग में बिना नमक का भोजन आदि सम्मिलित है
आज के समय में चरक सहित और सुश्रुत सहित आधार ग्रन्थ सिद्ध हुए है मध्य काल में शल्य चिकित्सा में कुछ गिरावट आयी थी क्योकि उस समय नाई उस्तरे के प्रयोग से चिर फाड का काम करने लगे थे लेकिन धीरे धीरे इसमें सुधर होता गया और आज के आधुनिक युग में हमारे प्राचीन ग्रन्थ चिकित्सा के क्षेत्र बहुत ही कारगर सिद्ध हुए है और इन्हें ही औषधीय विज्ञान का जनक माना जाता है
चरक सहित मे औषोधियो के रूप में प्रयोग की जाने वाली जड़ी बूटियों के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है चोथी शताब्दी में शल्य चिकित्सा एक अलग अध्धयन धारा के रूप में उभरकर सामने आयी और सुश्रुत को इस शास्त्र में सबसे आगे माना जाता है सुश्रुत ने शल्यचिकित्सा को उपचार की सबसे अच्छी विधि माना है उन्होंने अपने ग्रन्थ में १२१ शल्य उपकरणों का वर्णन किया है जिसमे उन्होंने हड्डियों को जोड़ने, आखों के मोतियाबिंद आदि के आप्रेशान का तरीका भी बताया है प्राचीन भारत के शल्य चिकित्सक प्लास्टिक सेर्जेरी से भी परिचित थे जिसमे नाक, कान, होठो की सर्जरी आदि सम्मिलित है
सुश्रुत ने अपने ग्रन्थ में लगभग ७६० पोधो का उल्लेख किया है जिसमे उन्होंने पोधो की जेड, छाल, फूल, और पत्ते आदि सभी का उल्लेख किया है और उस समय भोजन पर आधिक बल दिया जाता था जैसे गुर्दे के रोग में बिना नमक का भोजन आदि सम्मिलित है
आज के समय में चरक सहित और सुश्रुत सहित आधार ग्रन्थ सिद्ध हुए है मध्य काल में शल्य चिकित्सा में कुछ गिरावट आयी थी क्योकि उस समय नाई उस्तरे के प्रयोग से चिर फाड का काम करने लगे थे लेकिन धीरे धीरे इसमें सुधर होता गया और आज के आधुनिक युग में हमारे प्राचीन ग्रन्थ चिकित्सा के क्षेत्र बहुत ही कारगर सिद्ध हुए है और इन्हें ही औषधीय विज्ञान का जनक माना जाता है
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